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संताल हुल: इतिहास, भावना और आज की प्रासंगिकता

रूपम किशोर सिंह


हुल' का अर्थ: एक पुकार, एक क्रांति


‘हुल’ संथाली भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है – क्रांति, आंदोलन, प्रतिरोध। यह केवल हथियार उठाना नहीं, बल्कि शोषण, अन्याय और दमन के खिलाफ आवाज उठाना है। यह आवाज तब बुलंद हुई जब सिस्टम (तंत्र) बहरा बना रहा और न्याय के सारे रास्ते बंद हो गए।


1855 का संथाल हुल: उत्पत्ति और उद्देश्य


30 जून 1855 को भोगनाडीह (बरहेट, संथाल परगना, झारखंड) में सिदो और कान्हू मुर्मू के नेतृत्व में हजारों संथाल आदिवासी एकत्रित हुए। वर्षों तक ब्रिटिश शासन, महाजनों और पुलिस दरोगाओं के अत्याचार और शोषण को सहने के बाद उन्होंने यह शपथ ली – “अबुवा दिसोम अबुवा राज” (अपना देश, अपना शासन)। इस आंदोलन में लगभग 10 000 -50000 लोगों हिस्सा लिया। इस आंदोलन की शुरुआत जाहेर एरा (संथाल देवी) की पूजा से हुई, जो संथाल समाज की आध्यात्मिक शक्ति रही हैं।

सांस्कृतिक और आध्यात्मिक शक्ति


भोगनाडीह का "कादम ढढ़ी" जल स्रोत आज भी विद्यमान है, जहाँ कहा जाता है कि सिदो-कान्हू नित्य स्नान करते थे और पूजा करते थे। यहीं से उन्हें संघर्ष की दिशा और प्रेरणा मिलती थी। इस धार्मिक और आध्यात्मिक जुड़ाव ने इस क्रांति को और अधिक मजबूत और जनांदोलन का रूप दिया।


हुल का प्रभाव और परिणाम


संथाल हुल ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी। आंदोलन के दबाव में 22 दिसंबर 1855 को संथाल परगना जिला का गठन हुआ। इसका प्रभाव इतना गहरा था कि संथालों की भूमि-संरक्षण के लिए SPT एक्ट (Santhal Parganas Tenancy Act) अस्तित्व में आया – जो आज भी झारखंड में आदिवासी भूमि सुरक्षा की आधारशिला है।

हुल के नायक: अमर बलिदानी


10 नवंबर 1855 को मार्शल लॉ लागू हुआ और जनवरी 1856 तक विद्रोह को रोक दिया गया। इसमें सिदो-कान्हू मुर्मू, चाँद-भाइरो मुर्मू ओर फूलो-झानो के साथ करीब 15,000 से अधिक संथाल शाहिद हो गए, यह बलिदान केवल संथालों का नहीं था – इसमें कई गैर-आदिवासी भी शामिल हुए। यह एक सर्वजन आन्दोलन था।

हुल की वर्तमान प्रासंगिकता


आज 165 वर्षों से अधिक बीत चुके हैं, लेकिन संथाल परगना समेत झारखंड के मूलवासी आज भी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं।

पीने का शुद्ध पानी

गुणवत्तापूर्ण शिक्षा

स्वास्थ्य सेवा

बिजली, सड़क, संचार

कृषि के लिए सिंचाई

इन सभी में अभी भी भारी कमी है।


क्या आज हम सही मायनों में हुल दिवस मना रहे हैं?


आज ‘हुल दिवस’ केवल औपचारिकता बनता जा रहा है – कार्यक्रम, माला, भाषण और फोटो। लेकिन मूल सवाल यह है:

क्या हम आज भी सिदो-कान्हू के सपनों को जी रहे हैं?

क्या हम आज भी “अबुवा दिसोम अबुवा राज” को आगे बढ़ा रहे हैं?

क्या हम केवल अपने स्वार्थ के लिए ‘हुल दिवस’ मना रहे हैं?

हुल की सच्ची श्रद्धांजलि: शिक्षा और अधिकार की लड़ाई

हमें हुल दिवस तभी सार्थकता मिलेगी जब—

हर ग्रामीण बच्चा शिक्षा पाए।

हर परिवार को न्याय और अधिकार मिले।

हर आदिवासी, हर वंचित अपनी पहचान, भाषा, संस्कृति और जमीन के लिए सशक्त रूप से खड़ा हो।


सिदो-कान्हू का हुल आज भी अधूरा है अगर हम खुद को शिक्षित कर अपने अधिकारों के लिए संगठित नहीं हुए। हुल केवल इतिहास नहीं, एक चेतना है जो हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है।

हुल जोहार!


 
 
 

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