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गांधी और अहिंसा.....


मुझे गणेश शंकर विद्यार्थी के बलिदान से रश्क हैं।

भारत मे दूसरा कोई गणेश शंकर पैदा नही हुआ, तो आश्चर्य की क्या बात है। भविष्य मे भी उनकी कमी कोई पूरी नही कर पाएगा। गणेश की अहिंसा पूर्ण थी, सम्यक थी।

मेरी भी अहिंसा वैसी ही पूर्ण और सम्यक हो जाएगी, अगर मै अपने सिर पर फरसे का वार शांति से स्वीकार लूं।

मै हमेशा ऐसी मृत्यु की इच्छा करता हूं। कैसी महान होगी वो मौत ... एक तरफ से एक कटार भोंकी जाए, दूसरी ओर से फरसे का वार हो, लाठी का कोई प्रहार तीसरी दिशा से हो, लात घूंसे और गालियां सभी तरफ से आ रही हों।

ऐसे वक्त मे भी मै अहिंसा का पालन कर सकूं, और आपे साथ वालो को भी अहिंसा के लिए प्रेरित कर पाउं .... अंततः मरते हुए, मेरे चेहरे पर मुस्कान और शांति हो, तब केवल ही मेरी अहिंसा पवित्र और पूर्ण हो पाएगी।

मै ऐसे अवसर की तलाश मे हूं, और तमाम कांग्रेसियो से ऐसे अवसर तलाशने की उम्मीद करता हूं।


गांधी ने यह संदेश, अपनी मृत्युकामना को, 1931 मे गणेश शंकर की शहादत की बरसी पर लिखा था। गणेश शंकर गांधीवादी पत्रकार थे, और कानपुर के हिंदू मुस्लिम दंगों को शांत कराने की कोशिश मे मारे गए थे।

गणेश शंकर खुद चलकर आपदाग्रस्त मोहल्ले मे पहुंचे थे। उन्हे मारने वाले उनके अपने धर्म के नही थे। वो अंग्रेजी राज था, तो गणेश की मौत विदेशी सरकार की कानून व्यवस्था की नाकामी थीं।

मोहनदास कर्मचन्द गांधी की इस ख्वाहिश को पूरा होने मे 18 साल लगे। हांलांकि कोशिश तो 1936 से शुरू हो चुकी थी। गोडसे ने इन कोशिशों मे 1941 से भागीदारी दी। आखिरकार अपने चौथे प्रयास मे वो गांधी की अहिंसा को उनके खून से पवित्र कर पाया।

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गांधी अमर हुए। वो आजाद भारत था। वो हमारी अपनी सरकार थी। वो हमारा स्वराज था। गांधी को मारने वाला स्वधर्मी था।

उसका असल नाम, जन्मनाम - नाथूराम नही.......रामचंद्र था।

रामचंद्र विनायक गोडसे !!!


हे राम !!!!

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