यह महात्मा गांधी के बताए मार्ग पर चलने वाले आंदोलन जीवियों की जीत है
देश की आजादी के बाद के इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि संसद के दोनो सदन से पारित कृषि कानून को सरकार ने वापस लेने का एलान किया । हालांकि इससे पहले दो बार केंद्र सरकार द्वारा अध्यादेश वापसी की घटना दो हजार पंद्रह में भाजपा नीत केंद्र सरकार द्वारा जमीन अधिग्रहण अध्यादेश और दो हजार तेरह में अपराधी ठहराए गए सांसद को बचाने वाला अध्यादेश जो यू पी ए सरकार द्वारा लाया गया था को वापस लिया गया है । कृषि कानून की वापसी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उसी अंदाज में वापस लेने की घोषणा की जैसा की दो हजार पंद्रह में " मन की बात कार्यक्रम " में जमीन अधिग्रहण बिल वापस की बात या आठ नवंबर दो हजार सोलह को नोटबंदी की बात कह कर देश को चौंका दिया था । पिछले साल छब्बीस नवंबर दो हजार बीस को शुरू हुए इस आंदोलन को कुचलने के लिए केंद्र और राज्य सरकार द्वारा क्रूर रवैया अपनाया गया । किसान दिल्ली की सीमा पर ना पहुंच सकें इसके लिए उनपर ठंड के मौसम में वाटर केनन से पानी का बौछार किया गया , सड़कें खोद दी गई सत्तर अस्सी साल के बुजुर्ग पर पुलिसिया लाठी चटकी । फिर भी किसानों ने अपनी एकता और हिम्मत बनाए रखा वो दिल्ली पहुंच गए । सरकार इसके बाद और असंवेदनशील रवैया अपनाने को तैयार थी । वो इस आंदोलन को निर्दयता पूर्वक कुचलने के लिए अपने हर तंत्र मीडिया तंत्र , भीड़ तंत्र , पुलिसिया तंत्र का इस्तेमाल कर रही थी । उन्हे , खालिस्तानी , आतंकवादी , आंदोलनजीवी , विदेशों के धन से चलने वाला आंदोलनकारी कहा जा रहा था ।
इसका एक ताजा उदाहरण देखने को मिला जब लखीमपुरी में किसानों के ऊपर एक वाहन चढ़ा दिया गया जिसमे कुछ किसानों की मृत्यु हो गई । किंतु किसान इस आंदोलन को गांधी के बताए रास्ते अहिंसा और सत्याग्रह की तरह लड़ रहे थे । वो भारत बंद , रेल रोको जैसे अभियान से वे पूर्ण बहुमत की ऐसी सरकार से लड़ रहे थे जिसकी मीडिया मैनेजमेंट गजब की थी उनके समर्थक राष्ट्रवाद के उस नशे में थे जहां किसान उन्हें राष्ट्रद्रोही लग रहे थे। कोरोना जैसी विपदा , ठिठुराती ठंड और बारिश में भी बिना विचलित हुए अपने किसान भाइयों के शहीद होने पर भी अपनी एकताशक्ति बनाए रखा और अंततः नरेंद्र मोदी की पूर्ण बहुमत की सरकार का हार हुआ। जब भारत के प्रधानमंत्री ने माफी मांगते हुए तीनो कृषि कानून को वापस लिए जाने की बात कही । इस कानून के वापस लिए जाने के बाद भारत की फिजां में कई तरह की बातें तैरने लगी । मसलन यह सरकार की हार है तो कोई कह रहा था किसानों की जीत हुई , लेकिन पिछले कुछ दिनों का घटनाक्रम पर गौर करें तो इसके एक अलग राजनीतिक मायने भी निकल कर आते हैं । बी जे पी के ही सत्यपाल मालिक जो कभी मेघालय के राज्यपाल थे वो लगातार सरकार पर किसानों के समर्थन में हमला बोल रहे थे , और भा ज पा चुप थी । सत्यपाल मालिक ने कहा था आगामी चुनाव में भाजपा सत्ता से दूर रह सकती है। अगर किसानों की बात नही सुनी गई ।
भाजपा के नेता अपने क्षेत्र में जाने से डर रहे थे जबकि एक तरह से प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह पूर्वांचल दौरा ( अभी तीन दिन पूर्व ) कर चुनावी बिगुल फूंक चुके थे । भाजपा आर एस एस का भी फीडबैक बता रहा था की माहौल उनके अनुकूल नहीं है । अभी कुछ दिन पूर्व हुए उपचुनाव में भाजपा की बुरी तरह हार हुई जिसके बाद पेट्रोल डीजल के दाम कम करने पड़े ऐसी स्थिति में भाजपा का थिंक टैंक इस बात पार चिंतित था की अगर उत्तरप्रदेश में भाजपा की हार हुई तो दो हजार चौबीस के लोक सभा चुनाव जो उत्तरप्रदेश होकर जाता है से दिल्ली दूर हो जाएगी । भाजपा अपनी पकड़ दिल्ली की सत्ता में बनाए रखना चाहती है और उसके लिए ये अब जरूरी हो गया था की कृषि कानून बिल को वापस लिया जाए । कुल मिलाकर कहा जाए तो सत्ता में बने रहने के लिए भाजपा को कृषि कानून बिल वापस लेना पड़ा
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